जब मैं पैदा हुआ लोग खुश होने से पहले भागे,
समय नोट करने घड़ी देख कर,
रोज़ पिताजी उठते थे घड़ी देख कर,
दफ़तर जाते घड़ी देख कर,
शाम को माँ बोलती तेरे पिताजी अभी तक नहीं आए घड़ी देख कर,
पिताजी घर आते घड़ी देख कर,
चाय पीते घड़ी देख कर,
सामाचार सुनते घड़ी देख कर,
खाना खाते घड़ी देख कर,
और सोने भी जाते तो घड़ी देख कर ।
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मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो स्कुल जाने लगा घड़ी देख कर,
लंच और छुट्टी होती घड़ी देख कर,
एक दिन घर देर से पहुँचा तो माँ बोली इतनी देर कहाँ लगा दी घड़ी देख कर,
मेरे पास तो घड़ी हीं नहीं है फिर घर कैसे आउँ घड़ी देख कर,
मिल गई मुझे एक नई घड़ी,
सभी खुश होते मुझे देख कर घड़ी घड़ी,
पर मैं खुश होता भी तो घड़ी देख कर ।
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बड़ा हुआ रोज़ इन्टरभ्यू देने जाता घड़ी देख कर ,
नौकरी मिली भी तो आते जाते ट्रेनों की सुची बनानी थी घड़ी देख कर,
बात शादी की चलाई गई शुभ घड़ी देख कर,
और जब मण्डप में बैठा तो पण्डितजी बोले
तेरी शादी भी शुरु होगी घड़ी देख कर ,
मेरी पत्नी कितनी भाग्यवान थी ,
जब आती ना थी देखने घड़ी तो परेशान कैसे होती घड़ी देख कर ।
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हर घड़ी मैं बेचैन रहता था,
और बेचैन हो जाता घड़ी देख कर,
मन बहलाने के लिए सिनेमा हाल गया,
तो कर्मचारी बोला शो अब शुरु हीं होगा घड़ी देख कर,
घड़ी देखते देखते मेरा सर घड़ी सा घूमने लगा,
बीमार पड़ा डाक्टर के पास गया,
उसने नब्ज़ पकड़ी और बोला घड़ी देख कर,
आपको बुखार है हर दो घण्टे पर दवा खाइएगा घड़ी देख कर,
जिस कारण बीमार पड़ा,
भला ठीक कैसे हो सकता था उसे देख कर,
लोग कहने लगे इसके मरने का टाइम आ गया है,
और आज मर भी रहा हूँ तो घड़ी देख कर ।
Nishikant Tiwari
very nice poem ............
ReplyDeletei like so much this poem
ReplyDeleteअच्छी जानकारी।
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