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Monday, October 15, 2012

यह न थी हमारी किस्मत


यह  न  थी  हमारी  किस्मत  कि  विसाल-ऐ -यार  होता ,
अगर  और  जीते  रहते  यही  इंतज़ार  होता !

ये मेरे भाग्य में नहीं था कि मैं अपने प्यार से मिल पाऊं |
मुझे उस घड़ी का इंतज़ार रहता अगर मैं उस समय तक जीता |

तेरे  वादे पर जिए हम तो ये जान झूठ  जाता,
मैं खुशी से मर न जाती अगर ऐतबार होता |

तुम्हारे को सच मान लेते तो ये जान बेतलब जाता
क्योंकि ख़ुशी से मर ना गए होते अगर भरोसा होता |

हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों ना घर्ग-ऐ-दरिया
ना  कभी जनाज़ा उठता, ना कही मज़ार होता..|


हम इस तरह मर के क्यों बदनाम हुए इससे अच्छा तो समुन्द्र में डूब जाते
कभी जनाज़ा नहीं उठता ना कहीं मज़ार बनता

कोइ मेरे दिल से पूछे,  कि यह  तीर-ऐ-नीम कश  को
ये  खलिश कहाँ से होती  जो जिगर के पार होता |

कोई मेरे दिल से पूछे कि किस तरह तुम्हारा तीर इसके पार हुआ
मैं चुप चाप मर गई होती जो ये दिल के पार होता |

कहूं किस से मैं की क्या है, शब्-ऐ-गम बुरी बला है,
मुझे क्या बुरा था मरना ? अगर एक बार होता |

अब मैं किस्से कहूँ कि गम कि रातें क्या होतीं हैं
मैं मर गई होती तो बस एक बार दर्द सहना पड़ता |

मिर्ज़ा ग़ालिब - Hindi romantic poem

Friday, November 11, 2011

तुम अगर मुझको ना चाहो तो कोई बात नहीं

This is a song from a hindi movie  .I liked it very much .

तुम अगर मुझको ना चाहो तो कोई बात नहीं
तुम किसी और को चाहोगी तो मुस्किल होगी |
अब अगर मेल नहीं है तो जुदाई भी नहीं ,
बात अगर तोडी नहीं तुमने तो बनाई भी नहीं ,
ये सहारा बहुत है मेरे जीने के लिए ,
तुम अगर मेरी नहीं तो परे भी नहीं ,
तुम मेरे दिल को न सराहोगी तो कोई बात नहीं ,
तुम गैर के दिल को सराहोगी तो मुस्किल होगी ,
तुम किसी और को चाहोगी तो मुस्किल होगी |
     
तुम हसीं हो तुम्हे प्यार हीं सब करते होंगे ,
मैं जो मरता हूँ तो क्या और भी मरते होंगे ,
सबकी आँखों में इसी शौक का तूफान होगा ,
सबके सिने में यही दर्द उभरते होंगे ,
मेरे गम में ना कराहों तो कोई बात नहीं ,
किसी और के गम में कराहोगी तो मुस्किल होगी ,
तुम किसी और को चाहोगी तो मुस्किल होगी |
       
फूल की तरह हंसों, सबकी निगाहों में रहो,
अपनी मासूम जवानी की पनाहों में रहो,
पर मुझको वो दिन ना दिखाना तुझे अपनी हीं कसम,
मैं तरसता रहूँ ,तुम गैर की बांहों में रहो ,
तुम अगर मुझसे ना निबाहोगी तो कोई बात नहीं ,
किसी दुश्मन से निबाहोगी तो मुस्किल होगी ,
तुम किसी और को चाहोगी तो मुस्किल होगी |

Friday, September 18, 2009

हांथो में आ गया जो कल रुमाल आपका

वो भी क्या दिन थे जब आशिक लड़कियों के रुमाल के लिए मरा करते थे |अगर गलती से किसी लड़की का रुमाल मिल जाए तो खुद को खुशनसीब समझते थे |उस रुमाल को जान से भी ज्यादा प्यार करते |उसे तकिये के नीचे रख के सोते |मैं भी सदा यही सपने देखा करता कि काश किसी लड़की का रुमाल मेरे हाथ में भी आता | इस रुमाल को लेकर हमारे गीतकारों ने जाने कितने गीत लिखे |जैसे काली टोपी लाल रुमाल ,रेशम का रुमाल आदि | ये रुमाल जो इतना सर आँखों पर चढा था स्वेन फ्लू ने इसकी ऐसी तैसी करके रख दी है | इस रुमाल, जिसे मैं पाने के सपने देखा करता था कल अचानक से मेरे पास आ गया |हुआ यूँ कि कल एक सहेली मुझसे बात करते करते अपना रुमाल भूल गयी |

पर इस रुमाल को लेकर मै बड़ी दुविधा में पड़ गया हूँ | आप पूछेंगे , भला क्यों ? अरे इस स्वेन फ्लू की वजह से | इस रुमाल को न फेंकते बनता है न रखते | इस पर मुझे एक गाना याद आ रहा है ..

हांथो में आ गया जो कल रुमाल आपका
बेचैन केर रहा है ख्याल आपका ... कि कहीं आपको स्वेन फ्लू तो नहीं क्योकि कल आप छींक रहीं थी |
एक तो ऐसे भी आज कल रुमाल रखने का चलन कम हो गया है ,लोग नेपकिन प्रयोग करने लगे है |फिर जाने कब इस रुमाल को पाने का सौभाग्य प्राप्त हो | अगर फेंक दूँ तो उस युवती पर अत्याचार होगा और अगर ना फेंकू तो शायद फिर कभी कोई अत्याचार करने के लिए हीं ना बचूं | बड़े संकट में हूँ | आप हीं कोई उपाय सुझाये |

Saturday, January 10, 2009

हर रोज़ मेरे भीतर

मर के जीने की कोशिश कर रहा जो जी के न जी सका कभी
फ़िर भी स्वार्थ की नई कीमत खोजता एक खोज मेरे भीतर
ये समय की जिद थी या जिंदगी की जरुरत
मुझको हीं पैसे से तौलता वो हर रोज़ मेरे भीतर |

जिसके हसीं की लहरों से बना था मेरे प्यार का समुंदर
देखा उसे तो बस नफ़रत से,क्यों इतना संकोच मेरे भीतर
आकाश सी उदासी वो आखों में समेटे
यही प्रश्न पूछने चली आती हर रोज़ मेरे भीतर |

कांटो की बेल से छुपाये सारे घावों को
हर खुशी में चीखता एक बोझ मेरे भीतर
भागता रहा सारी उम्र जिस ठहराव से
आ जाता है लड़ने वो हर रोज़ मेरे भीतर |

पत्थर की करके पूजा पत्थर हीं बन गया हूँ
फर्क नहीं पड़ता लग जाए जितना खरोंच मेरे भीतर
झुकती नहीं हैं नज़रें गिर जाऊं चाहे जितना
तालियाँ बजाता सन्नाटा हर रोज़ मेरे भीतर |

सोचता हूँ मन के सूखे ताल को नीर से भर दूँ
होगा कभी तो पुलकित सरोज मेरे भीतर
जिसकी थपकियों से टूटे अंहकार की सीमायें
मिल जाए वो मुझको हर रोज़ मेरे भीतर |


Nishikant Tiwari

Monday, December 1, 2008

शहीदों की मौत होती सबको हासिल नहीं है

न्याय का बना बैठा रक्षक वही है जो
ख़ुद सर उठाने के काबिल नही है
तेरा सर उठता भी है तो भर के आँखों में आंसू
तू मर्द कहलाने के काबिल नही है |

बारूद का कालिख पोत गया कोई मुंह में
फ़िर भी खून तुम्हारा खौलता नही है
ये न सोंचो की बच जाओगे ओढ़ कर कायरता की चादर
कीडे मकोडों की मौत ,अरे मिलनी तुमको भी वही है |

राज जानते हो फ़िर भी खोये हो किस सोंच ,भंवर में
कुछ तो ऐसा करो की उठ सको अपनी नज़र में
हाँ,हर तरफ़ जंगल है और आग सी लगी है
कब तक रोते रहोगे हाथ मलते बैठे घर में |

कितना जोर का तमाचा मार गया कोई गाल पर
अब तो तरस खाओ अपने हाल पर
अभी भी पशुता न छोड़ी तो दिन दूर नही
जब बांधे जाओगे खूंटे से रस्सी डाल कर |

बस एक बार कदम उठा कर तो देखो
ख़ुद को जलाना इतना भी मुश्किल नही है
मर भी गए परवाने तो कोई गम नहीं
शहीदों की मौत होती सबको हासिल नहीं है |


Nishikant Tiwari

Wednesday, May 14, 2008

मैं अकेला कब था !

मैं अकेला कब था ,मैं था और मेरी तनहाई थी,
कुछ अधुरे सपने ,मेरी मुश्किलें ,मेरी कठनाई थी,
मैं अकेला कब था ,मैं था और मेरी तनहाई थी ।

मेरे भावनाओं से खेला मेरे ऊसुलों का दाम लगा के,
बेबसी हँस रही थी मुझ पर कायरता का इल्जाम लगा के,
चुप था मैं पर लड़ रही सबसे मेरी परछाई थी,
मैं अकेला कब था ,मैं था और मेरी तनहाई थी ।

समय ने कर के तीमिर से मंत्रणा,हर ज्योति को बुझा दिया,
स्वाभीमान के कर के टुकड़े-टुकड़े मझे घूटनों में ला दिया,
हर तरफ़ से मिल रही बस जग हँसाई थी,
मैं अकेला कब था ,मैं था और मेरी तनहाई थी ।

जब देखा स्वयं को आईने में ,मैं टूट चूका था हर मायने में,
स्थिल कर रहा सोंच को ये बिन आग का कैसा धुआँ है,
ध्यान से देखा ,ओह ये आइना टूटा हुआ है,
और यही सोंच बन के जीत लेने लगी अँगड़ाई थी,
मैं अकेला कब था ,मैं था और मेरी तनहाई थी ।
Nishikant Tiwari

Friday, November 23, 2007

नई सोच

पानी के कुछ बुलबुलों में दुनिया जहान को डूबते देखा है,
सभ्यता की नई गलियों में इन्सान को मिटते देखा है,
गूँज वही है पर साज़ नए हैं,
आँसू वही हैं पर बहने के अंदाज नए है,
कितने अनजाने आए और मित्र बन गए,
और कुचले हुए गुलाब भी ईत्र बन गए,
पर आने वाले वक्त को किसने देखा है,
सभ्यता की नई गलियों में इन्सान को मिटते देखा है ।

जिन सवालों को लेकर चले थे,
जब उनके जवाब हीं बेमाने हो गए,
तो खुद ब खुद बंद होने लगीं खिड़कियाँ,
लोग कितने सयाने हो गए,
दिल हो गए पत्थर के जब से,
मैने खुद को दीवारों से बातें करते देखा है,
सभ्यता की नई गलियों में इन्सान को मिटते देखा है ।

ना वैसे कभी चली थी ,ना वैसे कभी चलेगी,
जैसा हम दुनाया के बारे में सोचते है,
फिर क्यों कभी खुद को कभी दुनिया को कोसते है,
अगर मीरा जैसे बनेंगे दीवाने ,
फिर लोग तो मारेंगे हीं ताने,
पर वक्त ने उसी दुनिया को उसके पैरों पर गिरते देखा है,
सभ्यता की नई गलियों में इन्सान को मिटते देखा है ।


Nishikant Tiwari

Monday, October 15, 2007

मुश्किलों का हल ढूंढता हूँ

तेरी बेवफाई से बिखर गया मैं हज़ार टुकड़ो में ,
जिस टुकड़े में मेरा दिल था वो टुकड़ा आज भी ढूंढता हूँ,
रह के मेहफिलों में भी खामोश ,
अपनी मुश्किलों का हल ढूंढता हूँ ।
.
कुछ जिद है ऐसी की तन्हाइ में जिना सुहाना लगता है,
और यहाँ तो सभी अपने अपने में जिए जा रहें हैं,
यह शहर भी मेरी तरह दीवाना लगता है,
सब ने बाग से फूल तोड़ कर घर के गुलिस्ते सजा डाले,
उजड़ा उजड़ा सा है चमन फिर भी सुहाना लगता है ।
.
टूट जाता है इन्सान कभी प्यार में कभी टकरार में

पर जिन्दगी चलती रहती है अपनी मस्ती ,अपनी रफ्तार में,
खुद को चाहे बाँध लो जंजीरों से,
फिर भी मन भागता चला जाता है ,

और उसके पीछे मज़बूर इन्सान हँफता चला जाता है
.
हाँ कहीं धूप है तभी तो छाँव है ,
दो पल की खुशी के लिए सारी जिन्दगी का लगा दाव है ,
पर रख के गिरवी जिन्दगी को और कया माँगे जिन्दगी से ,
दो आँसू हीं सही पर खरिदे है खुशी से ।

Nishikant Tiwari

Saturday, October 6, 2007

दीपक से उजाला करते है घर जलाए नही जाते

दीपक से उजाला करते है घर जलाए नही जाते
पुराने रिश्तों को तोड़ कर नए बनाए नही जाते
और झूट की बुनियाद के महल होते है रेत के
दुसरो के घर बसाए नही जाते अपना घर बेच के ।
.
छोटे छोटे बातों पर आंगन बाँट नहीं दिए जाते,
जिन पेड़ो पर फल ना हो काट तो नहीं दिए जाते,
दोस्ती तुम तुफान से भी कर लो मगर,
रास्ते घर के बताए नहीं जाते ।
.
कुछ ज़ख्म ऐसे है जो शौक से ढोए जा रहे हैं,
तोड़ कर दिल अपना दुसरों के सपने सँजोए जा रहे हैं,
कुछ राज़ ऐसे भी है जो सिर्फ एक से हैं बताए जाते,
पर उन्हें भी वो ज़ख्म दिखाए नहीं जाते ।


Nishikant Tiwari

Saturday, September 29, 2007

ये कहाँ आ गए हम

आए थे जहाँ से जाना वही है , सफर है लम्बा सुहाना नहीं है
दो बातें हमसे भी कीजिए , यहाँ कोई बेगाना नहीं है ।
.
साँसों को आराम चाहिए,होठो को गुनगुनाने के लिए नाम चाहिए
जाने कब से धूप में जलते रहें हैं
अब जो हो चुकी शाम तो छाँव मिली है
बस कुछ यादें हीं रह गईं है,हवाओं में ठंडक नहीं है ।
.
ये कहाँ आ गए हम ये कैसी ज़मीन है
जहाँ घर है सैकड़ो पर गाँव एक भी नहीं है
जाए उस पार कैसे पोखर तट है नाव नहीं है
दिल ने समझाया जाना कहीं था आ गए कहीं है
आज हम है कहाँ और ज़माना कहीं है ।
.
घर के सामने एक बुढ़िया रो रही थी
मर गए सब यहाँ एक भी आदमी नहीं है
फट जाए धरती और समा जाए उसमें
यहाँ हर कोई सीता नहीं है ।
.
पानी पिला दो अम्मा बड़ी प्यास लगी है
न देखो मुझे,देखो नीले आसमान को
बरसात कसी होगी जब बादल नहीं है
तेरी अम्मा भी कब से प्यासी बैठी है
मेरी आँखो के सिवा और कहीं पानी नहीं है ।


Nishikant Tiwari

Saturday, September 1, 2007

यह कैसा विकास है


पास है हम सभी फिर भी दिलो से कितने दूर है,
स्वतंत्रता की लम्बी उड़ान भरते हैं,
फिर भी कितने मज़बूर हैं,
उपर नीला आसमान नीचे नीला सागर है,
पर क्यों पड़ गया नीला सारा शहर है,
किस पाप की पूँजी बरसा रही हम पर कहर है ?
.
लाल रंग खतरे का निशान है पर हमारा खून भी तो लाल है,
फिर अपने हीं खून से क्यों रंग लिए हाथ अपने,
क्यों छिनने लगे है दुसरों के सपने,
अपने हीं गालो पर अपने ही उँगलियों के पड़ गए निशान है,
बेशर्मी की कला देख उपर बैठा भी हैरान है,
काम दाम और नाम के बन गए गुलाम है,
बस कालिख पुते जूतों को कर रहे सलाम हैं ।
.
मानवता से पशुता की ओर यह कैसा विकास है,
भौतिक सुखो से लाख घिरे हो भीतर से हर कोई उदास है,
उसकी आती जाती साँसों में दर्द है अकेलेपन का,
वह लाखो के बीच रहता है पर उसका अपना एक भी नही,
आँखो की घटाएँ बोझिल हो गई है बूँदो से,
होठों पर भले हीं मुस्कुराहट हो,
पर दिल में तरंग जगे ऐसा मौका एक भी नहीं ।


Nishikant Tiwari

Tuesday, August 28, 2007

आगे ही आगे

आगे बढ़ पथिक तेरी रौशन है राहें ,
दूर कहीं बुला रहीं है फ़िर वही बाहें ,
रुकना क्या अब झुकना क्या ,
पर्वत आए या दरिया या मिले काटे मुझको
.
सांसे तेज और पैर लथपथ तो क्या ,
जीवन डगर पर पद चिह्न छोड़ते जाएंगे ,

पाएंगे जो पाना है जाएँगे जहाँ जाना है ,
अब ख़ुद पे भरोसा है मुझको
.
दिल के अरमान जगे हैं हम भी आगये आगे है ,
बांटने होठों की हँसी सबको ,
रात लम्बी तो क्या और काली तो क्या ,
बुला रहा है कल का सूरज मुझको
.
रास्ता लंबा तो क्या काम ज्यादा है ,
जिंदगी छोटी है बड़ा इरादा है ,
अब बैठने की फुर्सत कहाँ है मुझको ,
कैद करके नज़ारे उनको दिल में बसाके ,
बढ़ता हूँ आगे हीं आगे करता सलाम सबको ,
पकड़ के हाथ मेरा कुछ देर साथ चलो यारो ,
पर अब रुकने के लिए ना कहो मुझको

Nishikant Tiwari

Monday, August 20, 2007

क्यों करे हम शिकवा

क्यों करे हम शिकवा गिले बहार से
कि हम तो बहार को बाहर बंद करके रखते है
जान जाएगी पर कोई जान नही पाएगा
कि हम तो ऐसे मोहब्बत किया करते है
आसुँओ से भर कर जाम पीते है
अपने हीं नशे में झुमते गाते जीते है ।
.
आप कुछ भी कहे पर हम ना मुँह खोलेंगे,
कहते है दरवाज़े कि दीवारो के भी कान हुआ करते है
पर हमने जब भी मुँह खोलना चाहा
हवाएँ रुख बदलने लगती है
और दूर हो जाता है आसमान
निगाहें बच के निकलने लगती हैं ।
.
अध जल गगरी छलकती है तो छलकने भी दो
कहीं प्यास बुझ जाए किसी प्यासे की
उस भरी गगरी से क्या
जिसके रहते राही प्यास से मर जाते है ।
.
आज न कोई बात होगी इत्तफाक की
इन्सान वही जो इन्तहान में उतर जाता है
दुश्मनों ने दोस्तों से सारे दाव सीखे है
वह अपना क्या जो दिल को दुख ना देता है ।
.
पड़ जाए तन पे कीचड़ पानी से धो लिया करते है
पर मन के कीचड़ को आसुँओ से नहीं धोया करते है
धोते है तो बस गालों के मैल को
कुछ लोग तो वह भी नही किया करते है ।
.
छोड़ जाते हैं पंछी घोसला
पर तिनके नही बिखेरा करते है
फिर शर्म से क्यों नहीं मर जाते वो लोग
जो घर जलाया करते है ।
.
कोई कुछ भी कहे कुछ फर्क कहाँ पड़ता है
पड़ता है तो बस दिल पर जोर ज़रा पड़ता है
आदत सी है ज़ोर इतना सहने की
बेज़ोड़ है ज़मना इसका ज़ोर कहाँ मिलता है ।
.
राह आते जाते क्यों लोग हँसा करते है
रोज़ खुद को देखते है आईने में
फिर भी ऐसा करते है ?..


Nishikant Tiwari

Thursday, August 16, 2007

एक और मैं

कहीं ना कहीं एक और मैं हूँ,
चाहे इस जहाँ में या उस जहाँ में,
या सितारों के बीच किसी तीसरे जहाँ में,
अनछुए अंधेरो में या जलते उजालों में,
आशा में निराशा में,
खुशी में या गम में,
कहीं ना कहीं एक और मैं हूँ ।
.
आज तक मैंने नहीं देखा है उसे,
बस देखा है अपने आप को आइने में,
कहीं दूर खड़ा वो मुझे पुकार रहा है प्यार से,
पर आज तक नहीं मिल पाया हूँ अपने आप से,
कभी ना कभी कहीं ना कहीं राह चलते,
उससे मुलाकात ज़रुर होगी,
क्योंकि मैं जानता हूँ कि,
कहीं ना कहीं एक और मैं हूँ ।


Nishikant Tiwari

Aab mai kaya kahu ?  हो जज़्बात जितने हैं दिल में, मेरे ही जैसे हैं वो बेज़ुबान जो तुमसे मैं कहना न पाई, कहती हैं वो मेरी ख़ामोशियाँ सुन स...