नभ को काले बादलों ने घेर लिया था | दिन भर की गर्मी के बाद मौसम थोड़ा ठंडा हो गया था | मैं हमेशा की तरह अपने छत पर संध्या भ्रमण कर रहा था | एकाएक तेज़ हवाएं चलने लगीं | पेडो से पत्ते टूट कर आकाश की तरफ चले जा रहे थे | मैं खुद भी को एक पत्ता समझ कर उड़ने जैसा आनंद ले रहा था | तेज़ हवाएं अब आंधी का रूप लें चुकी थी | अचानक कविता दौड़ते हुए अपने छत पर आई और तार से कपड़े उतरने लगी | यह उसका रोज़ का काम था | लेकिन ये क्या ? आज वो गई नहीं बल्कि छत के किनारे आकर मुझे घूरने लगी | कुछ कहना चाहती थी पर चुप हीं रही |मेरा तो आज जम कर भींगने का मन कर रहा था और अब तो वर्षा भी तेज होने लगी थी |मैं मयूर सा झूमता पानी की बूंदों से खेलने लगा | कविता अभी तक गयी नहीं थी |सारे सूखे कपड़े गिले हो चुके थे | वो अब भी वहीँ खड़े निहार रही थी मुझे | यहाँ जल वर्षा के साथ साथ शबनम की भी बारिश हो रही थी | दोनों को एक साथ सहन करना मेरे बस में नहीं था | दिल में एक तूफ़ान सा उठने लगा | मैं नीचे उतर आया |
कई बार उसके हाव भाव से लगा कि शायद वह मुझे चाहती है और इशारे से अपने दिल की बात कह रही है पर मैं सदेव इसे अपना भ्रम समझ कर नकार देता | यह पहली बार था जब उसने खुल के अपने प्यार का इज़हार किया था | आग तो इधर भी लगी थी | दिन भर उसके सपने देखता रहता | रात रात भर जाग कर उसके बारे में सोचता रहता पर इस तरह अपनी चाहत को दिखना मुझे फूहड़पन लगता |इसलिए कभी भी मैंने अपनी चाहत को होंठों क्या आँखों तक भी नहीं आने दिया |मैं जब भी छत पर टहल रहा होता वो किसी ना किसी बहाने से अपने छत पर चली आती |वो बिना धुप के भी मिर्चियाँ सुखाती ,बेसमय अपने चाचा के लड़के सोनू को खेलाने ऊपर चढ़ जाती | कभी किसी सखी से छत के कोने में जाकर मेरी तरफ देख कर कुछ बातें करती | उसके आते हीं मेरा व्यवहार स्वतः बनावटी हो जाता | दोस्तों से जोर जोर से बातें करता ,ठहाके लगाता | छोटे बच्चो पर रॉब झाड़ता |किसी ना किसी तरह उसका ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करता और जब वो मेरी तरफ देखने लगती तो मैं कहीं और देखने लगता |
उस शबनम की वर्षा के बाद भी मेरे भीतर कोई बदलाव नहीं आया था | उसके खुल के इज़हार करने पर भी मैं भाव नहीं दे रहा था | मेरी बेरुखी से वो बहुत आहत हुई | हमेशा दिखाने की कोशिश करने लगी कि अब उसे भी मुझमें कोई रूचि नहीं है पर जितना हीं नफ़रत करने का ढोंग करती उतनी हीं उसकी चाहत साफ़ झलकती |
करीब ४-५ महीने ऐसे हीं निकल गए | एक दिन कविता के घर सभी औरतें गाने बजाने के लिए जमा हुईं | सारे बच्चे मेरे कमरे में इकठ्ठा हुए थे | कविता भी थी | हम पलंग पे एक गोला बना कर बैठ गए |कविता मेरे बगल में बैठी | खेल शुरू हो गया | छोटे बच्चो के अजीब खेल होते है | मेरा बिलकुल मन नहीं लग रहा था पर मज़बूरी में खेलना पड़ रहा था | आखिर उन्हें शांत रखने की जिम्मेदारी मेरे और कविता पर जो थी |ठण्ड हलकी थी |सब एक हीं रजाई पैर तक ओढे बैठे थे | खेल खेल में हीं रजाई के भीतर कविता ने अपना हाथ मेरे हाथ पर रख दिया |
मैंने हाथ हटाने का प्रयास किया तो उसने जोर से पकड़ लिया | खिंचा तानी करने में समझदारी नहीं थी |मैं सहम गया कि अगर गलती से भी इसकी भनक इन शैतानो को लग गई तो पुरे मोहल्ले में नगाड़ा बजा देंगे |आज के बच्चे जितने छोटे दीखते है उतने होते नहीं है |दसवीं कक्षा में भी जाकर जिन विषयों का मैंने प्रथम अध्याय हीं पढ़ा था ,इन शैतानो ने चौथी पांचवी में हीं पूरी पुस्तक पढ़ डाली थी | एक डेढ़ घंटे के बाद जब खेल समाप्त हुआ तब जा के जान में जान आई |वो मुसीबत तो गयी पर एक और मुसीबत छोड़ गई |रजाई के नीचे एक पर्चा पड़ा था | मैंने झट से जेब में डाल लिया |
रात को जब सब सो गए तब मैंने वो पर्चा निकाला |
कुशल ,
तुम तो जानते हीं को मैं तुम्हे कितना प्यार करती हूँ | तुम्हारे सामने आते हीं मेरी धड़कने बढ़ जाती हैं | तुम सब जानकार भी क्यों अनजान बने रहते हो ? मैं लाख तुम्हे दिल से निकालने की कोशिश करती हूँ फिर भी बार बार मेरा मन तुम्हारी तरफ खिंच जाता है |
शायद मैं तुम्हारे काबिल नहीं इसीलिए तुम हमेशा रुखा रुखा बर्ताव करते हो |ठीक है तुम्हारी यही मर्ज़ी तो यही सही | अब ये तड़पन हीं मेरा नसीब है |
तुम्हारी
तुम जानते हो |
मैंने उसके ख़त को सैकड़ो बार पढ़ा और हर बार मुझे कोई घटना याद आ जाती कि कैसे प्यार से मेरी तरफ देखी थी या बात करने की कोशिश की थी और हर बार उसे मायूसी झेलनी पड़ी थी |एक दिन उसके पिताजी अपने भाई के साथ काम से बहार गए हुए थे | कविता की माँ ने बड़े संकोच से आकर कहा " देखो न कविता की आज अंतिम परीक्षा है और ऑटो की हड़ताल हो गयी है | क्या तुम उसे कॉलेज छोड़ दोगे ?" "हाँ हाँ क्यों नहीं |चाचीजी आप चिंता मत कीजिये |मैं उसे ले भी आऊंगा | मैंने अपनी मोटरसाईकिल निकाली और उसे लेकर कॉलेज के तरफ चल पड़ा |
पुरे रास्ते हम दोनों में से किसी ने मुह नहीं खोला | वह थोड़ी परेशान लग रही थी | शायद परीक्षा की वजह से | उसे कॉलेज उतार कर गेट के बाहर हीं प्रतीक्षा करने लगा |थोड़ी देर बाद एक सिपाही चीखता हुआ मेरी तरफ दौड़ा |"ऐ लड़के तुम गिर्ल्स कॉलेज के सामने क्या कर रहे हो ?चलो भागो यहाँ से नहीं तो ये डंडा देखत हो | इसने बड़ों बड़ों के आशकी के भूत उतारे हैं | "मैं यहाँ किसी को परीक्षा दिलाने आया हूँ |" झूट मत बोलो |नहीं मैं सच कह रहा हूँ | नाम बताओ उसका | मैंने अकड़ के कहा कविता | रोल नंबर ?"७८६८९०" |ठीक है साइड में खड़े रहो |
तीन घंटे बाद जब वो परीक्षा देकर बाहर निकली उसका चेहरा गुलाब सा खिला हुआ था | आज मैंने ध्यान दिया कि कितनी सुंदर है वो | उसकी आँखें ,उसके गाल , उसके होंठ रेशमी जुल्फे सब से जैसे सौंदर्य टपक रहा हो | शायद पेपर अच्छा हुआ था पर पास आते हीं फिर से शांत हो गई | मैंने भी चुपचाप बाइक स्टार्ट कि और उसे बैठाकर चल दिया | आधे रास्ते में अचानक एक साइकल वाला सामने आ गया | उसे बचाने के चक्कर में मुझे बाए मोड़ना पड़ गया |वो रास्ता कुंवर सिंह पार्क को जाता था | पुरे शहर में दिवानों के मिलने की एक मात्र सुरक्षित जगह थी | मैंने बाइक वापस नहीं ली ,चलता रहा | पार्क पहुँचते ही जोर से ब्रेक मारी | अपने दोस्तों को कई बार ऐसा करते देखा था जो मेरे से भी अपने आप ब्रेक लग गई थी | वो गिरते गिरते बची | बाइक साइड लगा कर हम पार्क में घुस गए | वो अब भी शांत थी | मैंने चुप्पी तोड़ी " आज इतनी शांत क्यों हो ? कुछ बोलती क्यों नहीं ?"
वो फिर भी चुप रही |
कविता तुम जानती नहीं हो | जैसा मैं दिखाने की कोशिश करता हूँ वैसा हूँ नहीं | भले मैं तुमसे बात ना करूँ | तुम्हे देख कर नज़रंदाज़ करूँ पर सच कहूँ तो तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो | जाने कितनी रातें तुम्हारे बारे में सोचते हुए काटीं है | तुम्हारे सपने देखता हूँ ,तुमसे अकेले में बात किया करता हूँ पर तुम्हारे सामने आते हीं जाने क्या हो जाता है | तुम्हे ये क्यों लगता है कि तुम मेरे काबिल नहीं हो | तुम इतनी सुंदर इतनी अच्छी हो बल्कि मैं हीं तुम्हारे लायक नहीं हूँ | ""नहीं नहीं ऐसा मत कहो "| आखिरकार कविता का मौन टूटा | इतना कह के वो फिर चुप हो गई | उसे अब भी मुझ पर भरोसा नहीं था | मैंने सबके सामने उसका हाथ थाम लिया | उसने छुडाने की कोशिश की तो मैंने पकड़ मजबूत कर ली | सभी हमारी तरफ देखने लगे | भीड़ से अलग गुलमोहर के पेड़ के नीचे एक बेंच था | हम वहीँ जाकर बैठ गए | उसके नैनों में एक नई चमक और कपोलों पर हया छाने लगी | आज पहली बार मैंने उसे शर्माते हुए देखा था | उसकी चन्दन काया से सर्प की भाँती लिपट जाने का मन कर रहा था |
उसका यौवन रह रह के मुझसे शरारत कर रहा था पर मैं विवश था | बातों का दौर चलता रहा | उसने जमकर मुझ पर भड़ास निकाली फिर शुरू हुआ प्यार भरी बातों का सिलसिला | ऐसी मदहोशी छाई कि घंटो बीत गए पता हीं नहीं चला | अँधेरा छाने पर गार्ड ने आकर सिटी बजाई | हम घबराए से बाइक की तरफ दौड़े | घर जाकर क्या बहाना बनाएंगे कुछ समझ नहीं आ रहा था | घर पहुँचते हीं कविता की माँ मिल गयीं | बड़ी घबराई सी लग रहीं थी | "सब ठीक तो है ? इतनी देर कहाँ लगा दी ? मेरा कलेजा पानी पानी हुआ जा रहा था |" कविता कुछ बोलना चाही पर मैं बीच में हीं बात काटते हुए बोला "ऑटो यूनियन वालों ने रास्ता जाम कर रखा था | किसी को जाने हीं नहीं दे रहे थे | हड़ताल जब ख़त्म हुई तब जाकर रास्ता खुला और हम आ सके |"ओहो बेटा मेरे कारण तुम्हे कितनी तकलीफ उठानी पड़ी " |" क्या कह रहीं है चाचीजी ,अब मुझे शर्मिंदा मत कीजिये |
हमारी प्रेम कहानी जाने कब से धीमे धीमे सुलग रही थी पर उसे आग का रूप दिया उस पार्क वाली मुलाक़ात ने | अब हम अक्सर कभी पार्क तो कभी सिनेमा जाने लगे | खूब बातें होती | एक दुसरे को छेड़ते, शरारतें करते | हमारे बीच इतनी निकटता आ गई कि एक दुसरे को कुछ कहने के लिए शब्दों का सहारा नहीं लेना पड़ता | आँखों आँखों में हीं आधे से ज्यादा बातें हो जातीं |किसी दिन अगर लड़ाई हो जाती तो अगले दिन खुद हीं मान जाते |कभी एक दुसरे को मनाने की ज़रूरत नहीं पड़ती |कितने खुश थे हम |
उसके पिताजी अक्सर बीमार रहते पर थोड़े दिनों से जब उनका स्वास्थ अधिक खराब रहने लगा तो मैं हीं कॉलेज जाते वक्त कविता को लेते जाता और शाम को आते समय लेते आता | सब कुछ अच्छा चल रहा था कि एक दिन अचानक उसके पिताजी की हालत ज्यादा खराब हो गई | हम उन्हें अस्पताल लेकर भागे | करीब १० दिनों के चौबीसों घंटे इलाज के बावजूद भी उनका निधन हो गया | अगले दो महीने हम कहीं घुमने नहीं गए | उसके पिताजी सरकारी कर्मचारी थे और अभी सेवा निवृत नहीं हुए थे सो अनुकम्पा के आधार पर कविता को चपरासी की नौकरी मिल गई | ज्वाइन करने के लिए उसे रामनगर जाना था | मैंने उसे पार्क में बुलाया और समझाया "क्या जरुरत है तुम्हे ये चपरासी की नौकरी करने की |पहले अपनी पढ़ाई पूरी कर लो फिर नौकरी के बारे में सोचना | क्या ये अच्छा लगेगा कि तुम प्लेट - बर्तन उठाती फिरो और वहां के बाबु किरानी सब तुम्हें गन्दी नज़र से देखते रहें ?" कुशल क्या तुम नहीं जानते कि कोई काम छोटा बड़ा नहीं होता और ऐसे भी सरकारी नौकरी किस्मत वालों को भी जीवन में बस एक बार ही मिलती है " |तुम चाहे कुछ भी कहो पर मैं ये नौकरी करुँगी |" कविता किताबी बातें और असल जिंदगी में फर्क होता है | मैंने मानता हूँ कि कोई काम छोटा बड़ा नहीं होता फिर भी अगर तुम ये नौकरी करोगी तो मुझे बहुत बुरा लगेगा | तुम्हारी ऐसी कोई मज़बूरी नहीं है कि तुम ये नौकरी करो |" हमारे बीच घंटों बहस चलती रही पर आखिरकार उसके जिद के आगे मैंने हार मान ली | मुझे लगता था कि वो मेरी हर बात मानती है और मेरी ख़ुशी हीं उसकी ख़ुशी है पर ऐसा नहीं था |
अगले महीने वो अपनी माँ को लेकर रामनगर चली गई | पहले तो हर रोज़ मुझे फोन करती | दिन भर क्या हुआ हर एक बात बताती फिर एक दिन बीच करके फोन करने लगी | थोड़े समय के बाद सप्ताह पंद्रह दिन में २-४ ही बात हो पाती |
५ महीने बाद परीक्षा देने वापस पटना आई | परीक्षा ख़त्म होने के बाद हीं हम मिल पाए |काफी दिनों के बाद मिली थी | बड़ी खुश थी | इतने दिनों में बातों का खजाना सा जमा हो गया था उसके पास | वो लगातार बोलती रही ,मैं चुप चाप सुनता रहा | बार बार जाने क्यों मन में आता कि वह पहले जैसी नहीं रही | उसके कपोलो पर वो हया की लाली नहीं थी ,न आँखों में वो चमक और नाहीं उसके बाल पहले जैसे रेशमी मालूम पड़ते थे | रह रह के ख्याल आता कि एक चपरासन के साथ बैठा हूँ | दिल को बहुत समझाया पर मन मानता हीं नहीं था | बातों ही बातों में उसने पूछा "शादी कब कर रहे हो मुझसे ? अपनी माँ को कब बताओगे ?" कविता समझ भी रही हो कि क्या बोल रही हो तुम ? मैं किस मुंह से तुम्हारी बात करुँ |
वो क्या बोलेंगी कि सारे जाहान में तुम एक चपरासन हीं पसंद आई | कविता : "उनके बोलने से क्या होता है ? तुम कह देना कि तुम मुझसे प्यार करते हो और शादी भी मुझी से करोगे | "नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकता | अपने माँ - बाप की इज्जत मिटटी में नहीं मिला सकता | लोग तरह तरह की बातें करेंगे | वे कहीं मुंह दिखने तक के लायक नहीं रह जायेंगे | कविता तुमने मुझे इस काबिल भी नहीं छोड़ा कि सब के सामने तुम्हारा हाथ भी थाम सकूँ |
कविता की आँखों से बड़ी बड़ी बुँदे टपकने लगीं मानो उसकी बेगुनाही साबित करने के लिए अपनी कुर्बानी दिए जा रहीं हो | होठ थर्राने लगे | खुद को सँभालते हुए बोली " तुमने कभी मुझसे सच्चा प्यार किया हीं नहीं वरना आज तुम ये बात नहीं कहते | उस दिन पार्क में जब सबके सामने तुमने मेरा हाथ थमा था तो मुझे लगा कि तुम मुझे बेहद प्यार करते हो और इसके लिए पूरी दुनिया तक से लड़ सकते हो पर आज ये भ्रम टूट गया | चलो अच्छा हुआ लेकिन ......| वो खुद को संभाल नहीं पायी और दौड़ते हुए पार्क से बाहर निकल गई |
Hindi Love Stories - Kavita Ki Kahani by Nishikant Tiwari
sad end of good love story
ReplyDeleteNyc
ReplyDeletebahut payari kahani hi
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