क्यों करे हम शिकवा गिले बहार से
कि हम तो बहार को बाहर बंद करके रखते है
जान जाएगी पर कोई जान नही पाएगा
कि हम तो ऐसे मोहब्बत किया करते है
आसुँओ से भर कर जाम पीते है
अपने हीं नशे में झुमते गाते जीते है ।
.
आप कुछ भी कहे पर हम ना मुँह खोलेंगे,
कहते है दरवाज़े कि दीवारो के भी कान हुआ करते है
पर हमने जब भी मुँह खोलना चाहा
हवाएँ रुख बदलने लगती है
और दूर हो जाता है आसमान
निगाहें बच के निकलने लगती हैं ।
.
अध जल गगरी छलकती है तो छलकने भी दो
कहीं प्यास बुझ जाए किसी प्यासे की
उस भरी गगरी से क्या
जिसके रहते राही प्यास से मर जाते है ।
.
आज न कोई बात होगी इत्तफाक की
इन्सान वही जो इन्तहान में उतर जाता है
दुश्मनों ने दोस्तों से सारे दाव सीखे है
वह अपना क्या जो दिल को दुख ना देता है ।
.
पड़ जाए तन पे कीचड़ पानी से धो लिया करते है
पर मन के कीचड़ को आसुँओ से नहीं धोया करते है
धोते है तो बस गालों के मैल को
कुछ लोग तो वह भी नही किया करते है ।
.
छोड़ जाते हैं पंछी घोसला
पर तिनके नही बिखेरा करते है
फिर शर्म से क्यों नहीं मर जाते वो लोग
जो घर जलाया करते है ।
.
कोई कुछ भी कहे कुछ फर्क कहाँ पड़ता है
पड़ता है तो बस दिल पर जोर ज़रा पड़ता है
आदत सी है ज़ोर इतना सहने की
बेज़ोड़ है ज़मना इसका ज़ोर कहाँ मिलता है ।
.
राह आते जाते क्यों लोग हँसा करते है
रोज़ खुद को देखते है आईने में
फिर भी ऐसा करते है ?..
Nishikant Tiwari
कि हम तो बहार को बाहर बंद करके रखते है
जान जाएगी पर कोई जान नही पाएगा
कि हम तो ऐसे मोहब्बत किया करते है
आसुँओ से भर कर जाम पीते है
अपने हीं नशे में झुमते गाते जीते है ।
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आप कुछ भी कहे पर हम ना मुँह खोलेंगे,
कहते है दरवाज़े कि दीवारो के भी कान हुआ करते है
पर हमने जब भी मुँह खोलना चाहा
हवाएँ रुख बदलने लगती है
और दूर हो जाता है आसमान
निगाहें बच के निकलने लगती हैं ।
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अध जल गगरी छलकती है तो छलकने भी दो
कहीं प्यास बुझ जाए किसी प्यासे की
उस भरी गगरी से क्या
जिसके रहते राही प्यास से मर जाते है ।
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आज न कोई बात होगी इत्तफाक की
इन्सान वही जो इन्तहान में उतर जाता है
दुश्मनों ने दोस्तों से सारे दाव सीखे है
वह अपना क्या जो दिल को दुख ना देता है ।
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पड़ जाए तन पे कीचड़ पानी से धो लिया करते है
पर मन के कीचड़ को आसुँओ से नहीं धोया करते है
धोते है तो बस गालों के मैल को
कुछ लोग तो वह भी नही किया करते है ।
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छोड़ जाते हैं पंछी घोसला
पर तिनके नही बिखेरा करते है
फिर शर्म से क्यों नहीं मर जाते वो लोग
जो घर जलाया करते है ।
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कोई कुछ भी कहे कुछ फर्क कहाँ पड़ता है
पड़ता है तो बस दिल पर जोर ज़रा पड़ता है
आदत सी है ज़ोर इतना सहने की
बेज़ोड़ है ज़मना इसका ज़ोर कहाँ मिलता है ।
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राह आते जाते क्यों लोग हँसा करते है
रोज़ खुद को देखते है आईने में
फिर भी ऐसा करते है ?..
Nishikant Tiwari
रचना सुन्दर है। भावनायें बहुत बलवती हैं, शब्द योजना भी सुन्दर है।
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