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Saturday, September 29, 2007

ये कहाँ आ गए हम

आए थे जहाँ से जाना वही है , सफर है लम्बा सुहाना नहीं है
दो बातें हमसे भी कीजिए , यहाँ कोई बेगाना नहीं है ।
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साँसों को आराम चाहिए,होठो को गुनगुनाने के लिए नाम चाहिए
जाने कब से धूप में जलते रहें हैं
अब जो हो चुकी शाम तो छाँव मिली है
बस कुछ यादें हीं रह गईं है,हवाओं में ठंडक नहीं है ।
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ये कहाँ आ गए हम ये कैसी ज़मीन है
जहाँ घर है सैकड़ो पर गाँव एक भी नहीं है
जाए उस पार कैसे पोखर तट है नाव नहीं है
दिल ने समझाया जाना कहीं था आ गए कहीं है
आज हम है कहाँ और ज़माना कहीं है ।
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घर के सामने एक बुढ़िया रो रही थी
मर गए सब यहाँ एक भी आदमी नहीं है
फट जाए धरती और समा जाए उसमें
यहाँ हर कोई सीता नहीं है ।
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पानी पिला दो अम्मा बड़ी प्यास लगी है
न देखो मुझे,देखो नीले आसमान को
बरसात कसी होगी जब बादल नहीं है
तेरी अम्मा भी कब से प्यासी बैठी है
मेरी आँखो के सिवा और कहीं पानी नहीं है ।


Nishikant Tiwari

1 comment:

  1. I think you written this poem keeping Delhi in mind.Here is great water problem and water can only be in eyes of residents in plenty.

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