पास है हम सभी फिर भी दिलो से कितने दूर है,
स्वतंत्रता की लम्बी उड़ान भरते हैं,
फिर भी कितने मज़बूर हैं,
उपर नीला आसमान नीचे नीला सागर है,
पर क्यों पड़ गया नीला सारा शहर है,
किस पाप की पूँजी बरसा रही हम पर कहर है ?
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लाल रंग खतरे का निशान है पर हमारा खून भी तो लाल है,
फिर अपने हीं खून से क्यों रंग लिए हाथ अपने,
क्यों छिनने लगे है दुसरों के सपने,
अपने हीं गालो पर अपने ही उँगलियों के पड़ गए निशान है,
बेशर्मी की कला देख उपर बैठा भी हैरान है,
काम दाम और नाम के बन गए गुलाम है,
बस कालिख पुते जूतों को कर रहे सलाम हैं ।
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मानवता से पशुता की ओर यह कैसा विकास है,
भौतिक सुखो से लाख घिरे हो भीतर से हर कोई उदास है,
उसकी आती जाती साँसों में दर्द है अकेलेपन का,
वह लाखो के बीच रहता है पर उसका अपना एक भी नही,
आँखो की घटाएँ बोझिल हो गई है बूँदो से,
होठों पर भले हीं मुस्कुराहट हो,
पर दिल में तरंग जगे ऐसा मौका एक भी नहीं ।
Nishikant Tiwari
keep the good work going keep writing
ReplyDeleteनिशिकांत जी,बहुत बढिया लिखते है आप। अब तो आप को पढते रहेगें टिप्पणी के रूप मे लिखी आप की पंक्तियां बहुत सुन्दर हैं।
ReplyDeleteबढ़िया रचना है. लिखते रहिये. शुभकामनायें.
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