यह न थी हमारी किस्मत कि विसाल-ऐ -यार होता ,
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता !
ये मेरे भाग्य में नहीं था कि मैं अपने प्यार से मिल पाऊं |
मुझे उस घड़ी का इंतज़ार रहता अगर मैं उस समय तक जीता |
तेरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूठ जाता,
मैं खुशी से मर न जाती अगर ऐतबार होता |
तुम्हारे को सच मान लेते तो ये जान बेतलब जाता
क्योंकि ख़ुशी से मर ना गए होते अगर भरोसा होता |
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों ना घर्ग-ऐ-दरिया
ना कभी जनाज़ा उठता, ना कही मज़ार होता..|
हम इस तरह मर के क्यों बदनाम हुए इससे अच्छा तो समुन्द्र में डूब जाते
कभी जनाज़ा नहीं उठता ना कहीं मज़ार बनता
कोइ मेरे दिल से पूछे, कि यह तीर-ऐ-नीम कश को
ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता |
ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता |
कोई मेरे दिल से पूछे कि किस तरह तुम्हारा तीर इसके पार हुआ
मैं चुप चाप मर गई होती जो ये दिल के पार होता |
कहूं किस से मैं की क्या है, शब्-ऐ-गम बुरी बला है,
मुझे क्या बुरा था मरना ? अगर एक बार होता |
अब मैं किस्से कहूँ कि गम कि रातें क्या होतीं हैं
मैं मर गई होती तो बस एक बार दर्द सहना पड़ता |
मिर्ज़ा ग़ालिब - Hindi romantic poem
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