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Tuesday, September 11, 2007

इन्सान की मजबूरियाँ

उठते है कदम तेज मेरे मगर पर,
मंजिलों की अपनी दुरियाँ हैं ,
बस चाहत से सपने सच नहीं होते,
मैं इन्सान हूँ, मेरी भी कुछ मजबूरियाँ हैं ,
आखिर कब तक मार सहेंगी हवाओं की,
गिर हीं जाती है जो सुखी पत्तियाँ हैं ।
.
इन हाथों के लकिरों की अपनी सिमाएँ हैं,
जहाँ से चले थे फिर वहीं लौट आए हैं,
किस सच झुठ की देते हो दुहाई,
हालात के साथ बदल जाती जिन्की परिभाषाएँ हैं ?
.
रास्तो पर कुछ फूल लगा देने से ,
अगर वे बगीचे हो जाते ,
तो हम भी मुठ्ठी भर सितारों से,
नया आसमान बनाते,
गम है तुझे भी तो इसमे नया क्या है,
लुट गया तेरा जहाँ तो क्या ,
रोज़ हज़ारो का लुटता है ।
.
मेरे तकदीर के तस्वीर में भी रंग नए होते,
जो ना करते कुछ गलतियाँ,
पर पर्वत से फिसल कर हीं ,
मिली हैं मुझको ये वादियाँ,
सदियों लग जाते जिसे बनाने में,
छ्न में मिट जाती ये वो दुनियाँ है,
मैं इन्सान हूँ, मेरी भी कुछ मजबूरियाँ हैं ।


Nishikant Tiwari

2 comments:

  1. निशिकांत जी,बहुत बढिया लिखते है आप।

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  2. sir ji bhaut achha likhte he. thanks likhne keliye.

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