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Saturday, September 29, 2007

ये कहाँ आ गए हम

आए थे जहाँ से जाना वही है , सफर है लम्बा सुहाना नहीं है
दो बातें हमसे भी कीजिए , यहाँ कोई बेगाना नहीं है ।
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साँसों को आराम चाहिए,होठो को गुनगुनाने के लिए नाम चाहिए
जाने कब से धूप में जलते रहें हैं
अब जो हो चुकी शाम तो छाँव मिली है
बस कुछ यादें हीं रह गईं है,हवाओं में ठंडक नहीं है ।
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ये कहाँ आ गए हम ये कैसी ज़मीन है
जहाँ घर है सैकड़ो पर गाँव एक भी नहीं है
जाए उस पार कैसे पोखर तट है नाव नहीं है
दिल ने समझाया जाना कहीं था आ गए कहीं है
आज हम है कहाँ और ज़माना कहीं है ।
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घर के सामने एक बुढ़िया रो रही थी
मर गए सब यहाँ एक भी आदमी नहीं है
फट जाए धरती और समा जाए उसमें
यहाँ हर कोई सीता नहीं है ।
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पानी पिला दो अम्मा बड़ी प्यास लगी है
न देखो मुझे,देखो नीले आसमान को
बरसात कसी होगी जब बादल नहीं है
तेरी अम्मा भी कब से प्यासी बैठी है
मेरी आँखो के सिवा और कहीं पानी नहीं है ।


Nishikant Tiwari

Wednesday, September 19, 2007

झाँकी हिन्दुस्तान की

सर पर जूता पाँव में टोपी,
खोपड़ी ऊलटी हर जवान की,
सफेदपोश में काला काम करे हम,
नीयत हर बेईमान की,
माता-पिता बेघर हुए,
बेटा रुप धरा शैतान की,
कदम कदम पर चोर लुच्चके,
ये झाँकी हिन्दुस्तान की ।
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हर साधु में चोर बसा है,
बस नज़र चाहिए पहचान की,
मित्र बन चल दिखाए,
शराबे समा हैवान की,
शैतानों की भीड़ लगी है,
सुरत दिखे नहीं इन्सान की,
ये झाँकी हिन्दुस्तान की ।
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नगर पालिका की गाड़ी नहीं,
किस्मत कचड़ा बनी हर कदरदान की,
सच के मुँह पर ताला पड़ा,
झुठे कौवे शान बढाए न्यायिक संस्थान की,
पाड़ा भी अब पण्डित बना,
बात सुनाए वेद पुराण की,
ये झाँकी हिन्दुस्तान की ।
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नेताजी सब नर्तक बने,
खिंची टाँग हर सुर गान की,
पठन पाठन संग प्रेम की शिक्षा ,
नीति हर विद्वान की,
अब याद आए कैसे मुझे मुस्कान की,
जब ऐसी झाँकी हिन्दुस्तान की,
जब ऐसी झाँकी हिन्दुस्तान की ।


Nishikant Tiwari

फुलझड़ियाँ

1.एक दिन रेस्टुरेंट में मुझे एक दोस्त मिल गया
देखकर मुझे उसका चेहरा एक्दम से खिल गया
पास आकर बोला -यार जेब में हैं थोड़े से पैसे
कहती है खाएगी पीज़ा ना की समौसे
मैने कहा- कोई बात नहीं सभी मुश्किलों के दौर से गुज़रते है
ये बात और है कि पहले लोग प्यार की भीख माँगा करते थे
अब प्यार में भीख माँगा करते हैं !!!!
.
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2.लड़की- प्यार मुझसे करते हो क्या करोगे मुझसे शादी ?

लड़का- क्या तुम्हारी अक्ल हो गई है आधी ?
जब प्यार तुमसे करता हूँ तो तुमसे कैसे कर सकता हूँ शादी !


Nishikant Tiwari

Tuesday, September 11, 2007

इन्सान की मजबूरियाँ

उठते है कदम तेज मेरे मगर पर,
मंजिलों की अपनी दुरियाँ हैं ,
बस चाहत से सपने सच नहीं होते,
मैं इन्सान हूँ, मेरी भी कुछ मजबूरियाँ हैं ,
आखिर कब तक मार सहेंगी हवाओं की,
गिर हीं जाती है जो सुखी पत्तियाँ हैं ।
.
इन हाथों के लकिरों की अपनी सिमाएँ हैं,
जहाँ से चले थे फिर वहीं लौट आए हैं,
किस सच झुठ की देते हो दुहाई,
हालात के साथ बदल जाती जिन्की परिभाषाएँ हैं ?
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रास्तो पर कुछ फूल लगा देने से ,
अगर वे बगीचे हो जाते ,
तो हम भी मुठ्ठी भर सितारों से,
नया आसमान बनाते,
गम है तुझे भी तो इसमे नया क्या है,
लुट गया तेरा जहाँ तो क्या ,
रोज़ हज़ारो का लुटता है ।
.
मेरे तकदीर के तस्वीर में भी रंग नए होते,
जो ना करते कुछ गलतियाँ,
पर पर्वत से फिसल कर हीं ,
मिली हैं मुझको ये वादियाँ,
सदियों लग जाते जिसे बनाने में,
छ्न में मिट जाती ये वो दुनियाँ है,
मैं इन्सान हूँ, मेरी भी कुछ मजबूरियाँ हैं ।


Nishikant Tiwari

Saturday, September 8, 2007

ज़ज़बात की निलामी

कल तुम भी ज़रुर आना निलामी होगी मेरे ज़ज़बात की,
सरे बाज़ार किमत लगेगी मेरे हालात की,
बाँध खड़ा किया जाएगा मुझे चौराहे पर,
सबकी निगाहें होंगी मेरे निगाहों पर,
सावन में पूछ क्या हो आसुओ की बरसात की,
कल तुम भी ज़रुर आना निलामी होगी मेरे ज़ज़बात की ।
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इन्सानो ने बनने दिया इन्सान तो क्या,
खुद अपने हीं घर में बन गए मेहमान तो क्या,
दिल में दर्द और होठों पर मुस्कान नहीं,
खुद पर शर्मींदा हूँ औरो से परेशान नहीं,
मुझे समझ हीं ना थी दुनिया के इस खुराफ़ात की,
कल तुम भी ज़रुर आना निलामी होगी मेरे ज़ज़बात की ।


Nishikant Tiwari

Friday, September 7, 2007

कोइ तो हमारा होता

डुबते को तिनके का सहारा होता,
दुनिया की इस भीड़ में कोइ तो हमारा होता,
काँटों को भी फूल समझ सीने से लगा लेते ,
अगर उनका एक इशारा होता ,
दुनिया की इस भीड़ में कोइ तो हमारा होता |
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लड़खड़ाए कदम क्या रास्ते हीं खो गए,
और पलक भर झपके हीं थे कि वे और किसी हो गए,
ऊफ ये दर्द ना सहना पड़ता ,
काश मेरा भी दिल उनकी तरह आवारा होता ,
दुनिया की इस भीड़ में कोइ तो हमारा होता |
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हमे भी मुस्कुराना आ जाता, अगर नज़रे चुराना आ जाता
क्यों तड़पते भर भर के आहें,
खुद जो मरहम लगाना आ जाता,
मज़धार में भटके को मिल गया किनारा होता,
दुनिया की इस भीड़ में कोइ तो हमारा होता |
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कुछ देर के लिए ये वक्त ठहर जाता तो , हम साथ उनके हो लेते
रुक भी जातीं ये साँसे तो,
पल भर हीं साथ उनके जी लेते,
ना ठेस लगती इस हाथ में जो हाथ तुम्हारा होता,
दुनिया की इस भीड़ में कोइ तो हमारा होता |

Nishikant Tiwari

Wednesday, September 5, 2007

पवन भँवरा टकरार

पवन ने क्या कह दिया झुक गईं शर्म से सारी कलियाँ
भुन भुनाने लगा भँवरा देने लगा गालियाँ
उसकी बीबी तो एक भी नहीं बस सालियाँ हीं सालियाँ ।
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पवन: अरे ओ आवारा भँवरा, रस चूसने वाला
बुरी नज़र वाले तेरा तो मुँह हीं नहीं सारा बदन काला
नशे में झुम रहा शराबी,शर्म नहीं आती तुम्हें ज़रा भी
दिन रात फुलों के बीच रहकर
तू उनकी ही सुगंध में सड़ रहा है
भगवान तुम्हें बचाए ना तू जी रहा है ना मर रहा है ।
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भँवरा: जो भी रास्ते में आए, या तो झुका दे या फीर तोड़ दे
कलियों फिर तुम्हारी बहियाँ कैसे छोड़ दे
उड़ा दे सारी पंखुड़ी एक पल में कर दे जवान से बुढी
यह पवन है पावन नहीं
इसमे बस भरा है अवगुण भुन भुन भुन भुन....................
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पवन
: काले कलुठे भँवरे तुझ पर तो कोई रिझती नहीं
फिर क्यों कभी सिटी मारता कभी गाना गाता है
जा बेवकूफ़ो की लाइन में खड़ा हो जा
क्यों लाइन मारता है ।
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भँवरा: हर कली तू बनना चाहता यार है
शायद मानसिक रुप से बीमार है
कहाँ कहाँ कितने जूते खाएँ हैं
पर तू फिर भी आदत से लाचार है ।
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कलि: क्यों लड़ रहे हो इनसानों की तरह
कच्छा पहन अखाड़े में खड़े पहलवानों की तरह
जहाँ पवन ना बहे और भँवरा ना गाए
उस बगिया में कौन आएगा
तुम दोनो यूँ लड़ते रहे तो मुझसे दिल कौन लगाएगा ?
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पवन: पीछे हट जा भँवरे अब मेरी बारी है
भँवरा: नहीं इससे मेरी पहले से यारी है
तन गए दोनो फिर खरी खोटी सुनाने की तैयारी है
जंग पहले भी ज़ारी थी जंग अब भी ज़ारी है ।


Nishikant Tiwari

Saturday, September 1, 2007

यह कैसा विकास है


पास है हम सभी फिर भी दिलो से कितने दूर है,
स्वतंत्रता की लम्बी उड़ान भरते हैं,
फिर भी कितने मज़बूर हैं,
उपर नीला आसमान नीचे नीला सागर है,
पर क्यों पड़ गया नीला सारा शहर है,
किस पाप की पूँजी बरसा रही हम पर कहर है ?
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लाल रंग खतरे का निशान है पर हमारा खून भी तो लाल है,
फिर अपने हीं खून से क्यों रंग लिए हाथ अपने,
क्यों छिनने लगे है दुसरों के सपने,
अपने हीं गालो पर अपने ही उँगलियों के पड़ गए निशान है,
बेशर्मी की कला देख उपर बैठा भी हैरान है,
काम दाम और नाम के बन गए गुलाम है,
बस कालिख पुते जूतों को कर रहे सलाम हैं ।
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मानवता से पशुता की ओर यह कैसा विकास है,
भौतिक सुखो से लाख घिरे हो भीतर से हर कोई उदास है,
उसकी आती जाती साँसों में दर्द है अकेलेपन का,
वह लाखो के बीच रहता है पर उसका अपना एक भी नही,
आँखो की घटाएँ बोझिल हो गई है बूँदो से,
होठों पर भले हीं मुस्कुराहट हो,
पर दिल में तरंग जगे ऐसा मौका एक भी नहीं ।


Nishikant Tiwari

Aab mai kaya kahu ?  हो जज़्बात जितने हैं दिल में, मेरे ही जैसे हैं वो बेज़ुबान जो तुमसे मैं कहना न पाई, कहती हैं वो मेरी ख़ामोशियाँ सुन स...