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Monday, July 23, 2007

परिवर्तन


निकल आया है एक और दिन ढलने के लिए,
उडते रेतों के बीच जलने के लिए,
आया था फ़िर वही कहानी कहने के लिए,
पर जा रहा है गुमसुम सिसकती रातों का हाथ थामने के लिए,
धहकते सितारों के बीच सोने के लिए,
दूर तनहाई में रोने के लिए ।


कभी बहती बहार सहलाया करती थी,
कभी खिलता था प्यार मुस्काने के लिए,
ढक रखा था फूलों ने इस कदर आशियाँ को,
कि जगह ना छोडी काँटो के लिए,
पर आज जो सेज सजी है काँटो की,
तो क्यों रुठें फूलों के लिए,
क्यों कर ले आँखें नम अपनी,
चुभते ख्यालों में खोने के लिए ।


बरसती हैं आँखे तो बरसने दो,
जाने कितने बरस तरस गए बरसने के लिए,
नीचे कभी ना देखते थे, आँखो को करके नीचे,
गिर गए नीचे, झुक गयीं शर्म से आँखे नीचे देखने के लिए,
बुझता है दीपक तो बुझने भी दो,
ऊजड़ा है चमन फिर से महकने के लिए ।

Nishikant Tiwari

1 comment:

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