थकी हारी दीवारों के उपर एक गीली गीली छत है
हर शाम वही बैठ कर आँखे भिजाने की लत है
सैकडों बार अँधेरे में भी पढ़ चूका हूँ मै
जाने किस स्याही से वो लिख गई ख़त है
बिखरी है चंपा कोई रख दे जरा उठाकर
हाथ है मैले मेरे, बैठा हूँ चूल्हा जलाकर
राख पोत ली हमने उनकी शाख बचाने की खातिर
फिर भी हंस गई वो जाते जाते आइना दिखाकर |
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Monday, October 3, 2011
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