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Tuesday, October 16, 2012

चाहत के मारो को बस तन्हाई मिलती है

लहराती हो जब आँचल तो पेड़ झूमते हैं
छुप छुप के देखते हम पेड़ो को चूमते हैं
उन्हें पहली बार देखते हीं  मर गये थे
खुद को रोग कैसा लगाकर उस दिन घर गए थे
नींद में हैं मुस्कुराते, जागते हुए रोते है
पागलपन को अपने मोहब्बत का नाम देते हैं
खुद की लगाई आग में हर पल ये काया जलती है
चाहत के मारो को बस तन्हाई मिलती है |

जाने तेरा सजना सितम है या करम है
चाहती है मुझको सबको यही भरम है
माना  की वो मेरे बारे में बातें करती है
मतलब ये तो नही कि  मुझपे मरती है
हाँ उसने भी कभी देख मुझे मुस्कुराया था
पर मैं खुद हीं तो अपना दिल हार आया था
अब एक हारे हुए को तो जग हंसाई मिलती है
चाहत के मारो को बस तन्हाई मिलती है |

उसकी बेरुखी को कैसे बेवफाई का नाम दे दें
खुद गलतियाँ करके कैसे इल्जाम दे दें
क्यों नहीं दोस्तों की बात मानता हूँ
धुप में जलता उसकी गली की खाक छानता हूँ
पढाई मेरी दिन भर चाय की दुकान पर चलती है
जाती है कहाँ वो,किस्से मिलती है
हर शाम अब तो मेरी ऐसे हीं ढलती है
चाहत के मारो को बस तन्हाई मिलती है |

Nishikant Tiwari - Hindi Love Poem 

1 comment:

  1. Feelings expressed in beautiful way. Amazing poem.

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