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Wednesday, October 17, 2012

कल तक था उसे प्यार, आज नहीं है

उसकी आँखों में कितना प्यार कितनी सच्चाई दिखती
मेरी कितनी चिंता थी, कितना ख्याल रखती
जुदा होने की सोच के कैसे घबरा जाती
ऐसे गले लगती कि मुझमे समा जाती
उसके प्यार रस में भीग, लगता सब सही है
कल तक था उसे प्यार, आज नहीं है |

कितने साल महीने हर पल उस पर मरते रहे
अपनी खुशनसीबी समझ सब सहते रहे, सब करते रहे
हृदय की हर धड़कन उसका नाम पुकारा करती थी
जान हथेली पे ले दौड़ जाते जो एक इशारा करती थी
हामारे तो दिल में आज भी ज़ज्बात वही है
कल तक था उसे प्यार, आज नहीं है |

कहती कि बात किये बिना नींद नहीं है आती
अब क्या हो गया कि मेरा फोन नहीं उठती ?
सोच के है दम घुटता , साँसे रुकती है
निर्लज इन आँखों से गंगा जमुना बहती है
जितना मैं तड़प रहा, क्या मरता हर कोई है ?
कल तक था उसे प्यार, आज नहीं है |

जानू तुम ना मिले तो मर जाउंगी ज़हर खाके
अब किसी और संग पिज़ा खाती है कुर्सियां सटाके
पैर पे पैर रख केर घंटो बातें होतीं हैं
क्या सच में लड़कियां इतनी निर्दयी होती हैं ?
क्यों वो मेरे साथ ऐसा कर रही है ?
कल तक था उसे प्यार, आज नहीं है |

जब तक था उसे प्यार, लगता बस मेरे लिए बनी है
अचानक कैसे बादल गई, नहीं होता यकीं है
प्यार को तो कब का दफना दिया, आती नहीं दया भी
न आँखों में कुछ शर्म है कि तुमने है कुछ किया भी
नफरत तुमसे फिर भी इस जन्म में मुमकिन नहीं है
कल तक था उसे प्यार, आज नहीं है |

Nishikant Tiwari - Hindi love poem (bewafai)

Tuesday, October 16, 2012

चाहत के मारो को बस तन्हाई मिलती है

लहराती हो जब आँचल तो पेड़ झूमते हैं
छुप छुप के देखते हम पेड़ो को चूमते हैं
उन्हें पहली बार देखते हीं  मर गये थे
खुद को रोग कैसा लगाकर उस दिन घर गए थे
नींद में हैं मुस्कुराते, जागते हुए रोते है
पागलपन को अपने मोहब्बत का नाम देते हैं
खुद की लगाई आग में हर पल ये काया जलती है
चाहत के मारो को बस तन्हाई मिलती है |

जाने तेरा सजना सितम है या करम है
चाहती है मुझको सबको यही भरम है
माना  की वो मेरे बारे में बातें करती है
मतलब ये तो नही कि  मुझपे मरती है
हाँ उसने भी कभी देख मुझे मुस्कुराया था
पर मैं खुद हीं तो अपना दिल हार आया था
अब एक हारे हुए को तो जग हंसाई मिलती है
चाहत के मारो को बस तन्हाई मिलती है |

उसकी बेरुखी को कैसे बेवफाई का नाम दे दें
खुद गलतियाँ करके कैसे इल्जाम दे दें
क्यों नहीं दोस्तों की बात मानता हूँ
धुप में जलता उसकी गली की खाक छानता हूँ
पढाई मेरी दिन भर चाय की दुकान पर चलती है
जाती है कहाँ वो,किस्से मिलती है
हर शाम अब तो मेरी ऐसे हीं ढलती है
चाहत के मारो को बस तन्हाई मिलती है |

Nishikant Tiwari - Hindi Love Poem 

Monday, October 15, 2012

यह न थी हमारी किस्मत


यह  न  थी  हमारी  किस्मत  कि  विसाल-ऐ -यार  होता ,
अगर  और  जीते  रहते  यही  इंतज़ार  होता !

ये मेरे भाग्य में नहीं था कि मैं अपने प्यार से मिल पाऊं |
मुझे उस घड़ी का इंतज़ार रहता अगर मैं उस समय तक जीता |

तेरे  वादे पर जिए हम तो ये जान झूठ  जाता,
मैं खुशी से मर न जाती अगर ऐतबार होता |

तुम्हारे को सच मान लेते तो ये जान बेतलब जाता
क्योंकि ख़ुशी से मर ना गए होते अगर भरोसा होता |

हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों ना घर्ग-ऐ-दरिया
ना  कभी जनाज़ा उठता, ना कही मज़ार होता..|


हम इस तरह मर के क्यों बदनाम हुए इससे अच्छा तो समुन्द्र में डूब जाते
कभी जनाज़ा नहीं उठता ना कहीं मज़ार बनता

कोइ मेरे दिल से पूछे,  कि यह  तीर-ऐ-नीम कश  को
ये  खलिश कहाँ से होती  जो जिगर के पार होता |

कोई मेरे दिल से पूछे कि किस तरह तुम्हारा तीर इसके पार हुआ
मैं चुप चाप मर गई होती जो ये दिल के पार होता |

कहूं किस से मैं की क्या है, शब्-ऐ-गम बुरी बला है,
मुझे क्या बुरा था मरना ? अगर एक बार होता |

अब मैं किस्से कहूँ कि गम कि रातें क्या होतीं हैं
मैं मर गई होती तो बस एक बार दर्द सहना पड़ता |

मिर्ज़ा ग़ालिब - Hindi romantic poem

Thursday, October 11, 2012

मैं निपढ मुर्ख बाल ब्रह्मचारी

हर शाम जब  भी  मैं  छत  पे  टहलने  जाता
उसे  सामने  की छत  पे  मटकते    पाता
कभी  शर्मा  के  देखती,  कभी  देख  के  शर्माती
किताब  लिए  मुझे  देख  हमेशा कुछ  रटती  रहती |

मैं  था  निपढ  मुर्ख बाल  ब्रह्मचारी
वो कहाँ  कोई  साधारण  नारी
लड़की  देख  तो  मुझे  आये  पसीना
मोहल्ले  की कोई  छोरी  हो  या  करीना  कटरीना |

पागल होकर  मेरे  प्रेम  में
फिट  किये  बैठी  थी  मुझे  आँखों  के  फ्रेम  में
मुझे  तो  कबड्डी  तक  आती  न  थी
और  खींच  रही  थी  ओलम्पिक  के  गेम  में !

मन  ही  मन  मै  भी  उसपे  मरता  था
पर  आते  देख  घबरा  के  राह  बदल  लिया  करता  था
एक  दिन  बोली  रोक  के  मुझे  बीच  बाज़ार  में
तुझमे  कुछ  कमी  है  या कमी  है  मेरे  प्यार  में ?

क्या  कहूँ  लड़की  थी  या  परी
पर  मुझ पे  थी  क्यों  मिट - मरी
आखिर  मैंने  था क्या किया
जो  मानने  लगी  थी  पिया ?

अब  तो  आईने  में  जोश  से  बांहे  फुलाता
पर  छत  पे  जाते  हीं फिर  बिल्ली  बन  जाता
हो  सकता  सब  अगर  बस  जोश से
तो  गधे  जीत  कर  निकलते  घोड़ो  की  रेस  से |

एक  दिन  हिम्मत  करके  मैंने  भी  किये  इशारे
पर  हम  तो  नौसिखिये   थे  इस  खेल  में  प्यारे
पता  नहीं  क्या खोट  हो  गई
वो  हंस  हंस  के  लोट  पोट  हो गई |

वो  बेचारी  कितनी  तड़पती, कितनी  रोती  थी
पर  सामने  जाने  की  मेरी  हिम्मत  ही  न  होती  थी
कितने  महीने  खुद  को  वो  ऐसे  ही  तडपाती
अब  तो  पेड़  पर  रहती  कबूतरनी  भी  बन  गई  थी  दादी |

राखी  के  दिन  जाने  क्यों  गुस्सा  थी  अम्मा
तुझसे  कोई  मिलने  आया  है  नालायक  निक्कमा
मेरी  तो  पतलून  उतर  गई  थी
राखी  का  थाल  लिए  वो  सामने  खड़ी  थी !

एक  टक  देखी  मुझे  गौर  से
अह  फिर  बाँध  दी  राखी  जोर  से
आखिर  उसे  क्यों  ना  लगती  मिर्ची
पिताजी  उसके  बन  सकते  थे  ससुरजी |

रोज़  उसे  छुप  छुप  देखा  करता  हूँ
उस  दिन  को  याद  करके  आंहे  भरता  हूँ
वो  भी  इशारे  करती  है
मुझ  पे  नहीं  मेरे  बाजू  वाले  पर  मरती  है !!
Nishikant Tiwari - Hindi Comedy Poem

Aab mai kaya kahu ?  हो जज़्बात जितने हैं दिल में, मेरे ही जैसे हैं वो बेज़ुबान जो तुमसे मैं कहना न पाई, कहती हैं वो मेरी ख़ामोशियाँ सुन स...