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Showing posts from October, 2012

कल तक था उसे प्यार, आज नहीं है

उसकी आँखों में कितना प्यार कितनी सच्चाई दिखती मेरी कितनी चिंता थी, कितना ख्याल रखती जुदा होने की सोच के कैसे घबरा जाती ऐसे गले लगती कि मुझमे समा जाती उसके प्यार रस में भीग, लगता सब सही है कल तक था उसे प्यार, आज नहीं है | कितने साल महीने हर पल उस पर मरते रहे अपनी खुशनसीबी समझ सब सहते रहे, सब करते रहे हृदय की हर धड़कन उसका नाम पुकारा करती थी जान हथेली पे ले दौड़ जाते जो एक इशारा करती थी हामारे तो दिल में आज भी ज़ज्बात वही है कल तक था उसे प्यार, आज नहीं है | कहती कि बात किये बिना नींद नहीं है आती अब क्या हो गया कि मेरा फोन नहीं उठती ? सोच के है दम घुटता , साँसे रुकती है निर्लज इन आँखों से गंगा जमुना बहती है जितना मैं तड़प रहा, क्या मरता हर कोई है ? कल तक था उसे प्यार, आज नहीं है | जानू तुम ना मिले तो मर जाउंगी ज़हर खाके अब किसी और संग पिज़ा खाती है कुर्सियां सटाके पैर पे पैर रख केर घंटो बातें होतीं हैं क्या सच में लड़कियां इतनी निर्दयी होती हैं ? क्यों वो मेरे साथ ऐसा कर रही है ? कल तक था उसे प्यार, आज नहीं है | जब तक था उसे प्यार, लगता बस मेरे लिए बनी ...

चाहत के मारो को बस तन्हाई मिलती है

लहराती हो जब आँचल तो पेड़ झूमते हैं छुप छुप के देखते हम पेड़ो को चूमते हैं उन्हें पहली बार देखते हीं  मर गये थे खुद को रोग कैसा लगाकर उस दिन घर गए थे नींद में हैं मुस्कुराते, जागते हुए रोते है पागलपन को अपने मोहब्बत का नाम देते हैं खुद की लगाई आग में हर पल ये काया जलती है चाहत के मारो को बस तन्हाई मिलती है | जाने तेरा सजना सितम है या करम है चाहती है मुझको सबको यही भरम है माना  की वो मेरे बारे में बातें करती है मतलब ये तो नही कि  मुझपे मरती है हाँ उसने भी कभी देख मुझे मुस्कुराया था पर...

यह न थी हमारी किस्मत

यह  न  थी  हमारी  किस्मत  कि  विसाल-ऐ -यार  होता , अगर  और  जीते  रहते  यही  इंतज़ार  होता ! ये मेरे भाग्य में नहीं था कि मैं अपने प्यार से मिल पाऊं | मुझे उस घड़ी का इंतज़ार रहता अगर मैं उस समय तक जीता | तेरे  वादे पर जिए हम तो ये जान झूठ  जाता, मैं खुशी से मर न जाती अगर ऐतबार होता | तुम्हारे को सच मान लेते तो ये जान बेतलब जाता क्योंकि ख़ुशी से मर ना गए होते अगर भरोसा होता | हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों ना घर्ग-ऐ-दरिया ना  कभी जनाज़ा उठता, ना कही मज़ार होता..| हम इस तरह मर के क्यों बदनाम हुए इससे अच्छा तो समुन्द्र में डूब जाते कभी जनाज़ा नहीं उठता ना कहीं मज़ार बनता कोइ मेरे दिल से पूछे,  कि यह  तीर-ऐ-नीम कश  को ये  खलिश कहाँ से होती...

मैं निपढ मुर्ख बाल ब्रह्मचारी

हर शाम जब  भी  मैं  छत  पे  टहलने  जाता उसे  सामने  की छत  पे   मटकते      पाता कभी  शर्मा  के  देखती,  कभी  देख  के  शर्माती किताब  लिए  मुझे  देख  हमेशा कुछ  रटती  रहती | मैं  था  निपढ  मुर्ख बाल  ब्रह्मचारी वो कहाँ  कोई  साधारण  नारी लड़की  देख  तो  मुझे  आये  पसीना मोहल्ले  की कोई  छोरी  हो  या  करीना  कटरीना | पागल होकर  मेरे  प्रेम  में फिट  किये  बैठी  थी  मुझे  आँखों  के  फ्रेम  में मुझे  तो...