मैं हर रोज़ की तरह ऑफिस जाने के लिए तैयार होकर बरामदे में. खड़ी सड़क को निहार रही थी | मैं रोज़ ऐसा करती थी | इस भागम भाग भरी जिंदगी में यही वो कुछ पल होते थें जो मैं शांत भाव से गुजारती थी | बड़ा सुकून मिलता और जब मन पूरी तरह शांत हो जाता तो दिन भर का कार्यक्रम तय करती | आज जितनी ताजगी महसूस हो रही थी उतनी जाने कब से नहीं हुई थी | मैंने ऑफिस की गाड़ी के बजाय रिक्शा से ऑफिस जाने का फैसला किया | गुडगाँव में fortune 500 में से कम से कम २०० कम्पनियों के ऑफिस है फिर भी यहाँ रिक्शा चलना आम बात है | मुझे भी रिक्शा ढूढने में कोई परेशानी नहीं हुई | ऊँची ऊँची इमारतो के बीच से टूटे-फूटे रास्तो से गुजरते हुए ऐसा मालुम हो रहा था जैसे किसी ने धोती के उपर कोट पहन ली हो |जब तक रिक्शा गली से निकला नहीं था तब तक तो बड़ा अच्छा लगा पर मेन रोड पर आते हीं धूल ने सारे मेक उप का सत्यानाश कर दिया |अपने फैसले पर अफ़सोस हो रहा था पर क्या कर सकती थी | किसी तरह ऑफिस पहुंची | रोज़ की हीं तरह मैं शिखा को लेकर चौथे मंजिल पर गई जहाँ कैंटीन है | नास्ता करते हुए मैंने देखा कि एक लड़का मुझे घूर रहा है |जैसे हीं मैंने उसक...