मैं अकेला कब था ,मैं था और मेरी तनहाई थी, कुछ अधुरे सपने ,मेरी मुश्किलें ,मेरी कठनाई थी, मैं अकेला कब था ,मैं था और मेरी तनहाई थी । मेरे भावनाओं से खेला मेरे ऊसुलों का दाम लगा के, बेबसी हँस रही थी मुझ पर कायरता का इल्जाम लगा के, चुप था मैं पर लड़ रही सबसे मेरी परछाई थी, मैं अकेला कब था ,मैं था और मेरी तनहाई थी । समय ने कर के तीमिर से मंत्रणा,हर ज्योति को बुझा दिया, स्वाभीमान के कर के टुकड़े-टुकड़े मझे घूटनों में ला दिया, हर तरफ़ से मिल रही बस जग हँसाई थी, मैं अकेला कब था ,मैं था और मेरी तनहाई थी । जब देखा स्वयं को आईने में ,मैं टूट चूका था हर मायने में, स्थिल कर रहा सोंच को ये बिन आग का कैसा धुआँ है, ध्यान से देखा ,ओह ये आइना टूटा हुआ है, और यही सोंच बन के जीत लेने लगी अँगड़ाई थी, मैं अकेला कब था ,मैं था और मेरी तनहाई थी । Nishikant Tiwari