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Showing posts from January, 2009

हर रोज़ मेरे भीतर

मर के जीने की कोशिश कर रहा जो जी के न जी सका कभी फ़िर भी स्वार्थ की नई कीमत खोजता एक खोज मेरे भीतर ये समय की जिद थी या जिंदगी की जरुरत मुझको हीं पैसे से तौलता वो हर रोज़ मेरे भीतर | जिसके हसीं की लहरों से बना था मेरे प्यार का समुंदर देखा उसे तो बस नफ़रत से,क्यों इतना संकोच मेरे भीतर आकाश सी उदासी वो आखों में समेटे यही प्रश्न पूछने चली आती हर रोज़ मेरे भीतर | कांटो की बेल से छुपाये सारे घावों को हर खुशी में चीखता एक बोझ मेरे भीतर भागता रहा सारी उम्र जिस ठहराव से आ जाता है लड़ने वो हर रोज़ मेरे भीतर | पत्थर की करके पूजा पत्थर हीं बन गया हूँ फर्क नहीं पड़ता लग जाए जितना खरोंच मेरे भीतर झुकती नहीं हैं नज़रें गिर जाऊं चाहे जितना तालियाँ बजाता सन्नाटा हर रोज़ मेरे भीतर | सोचता हूँ मन के सूखे ताल को नीर से भर दूँ होगा कभी तो पुलकित सरोज मेरे भीतर जिसकी थपकियों से टूटे अंहकार की सीमायें मिल जाए वो मुझको हर रोज़ मेरे भीतर | Nishikant Tiwari