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Friday, November 23, 2007

नई सोच

पानी के कुछ बुलबुलों में दुनिया जहान को डूबते देखा है,
सभ्यता की नई गलियों में इन्सान को मिटते देखा है,
गूँज वही है पर साज़ नए हैं,
आँसू वही हैं पर बहने के अंदाज नए है,
कितने अनजाने आए और मित्र बन गए,
और कुचले हुए गुलाब भी ईत्र बन गए,
पर आने वाले वक्त को किसने देखा है,
सभ्यता की नई गलियों में इन्सान को मिटते देखा है ।

जिन सवालों को लेकर चले थे,
जब उनके जवाब हीं बेमाने हो गए,
तो खुद ब खुद बंद होने लगीं खिड़कियाँ,
लोग कितने सयाने हो गए,
दिल हो गए पत्थर के जब से,
मैने खुद को दीवारों से बातें करते देखा है,
सभ्यता की नई गलियों में इन्सान को मिटते देखा है ।

ना वैसे कभी चली थी ,ना वैसे कभी चलेगी,
जैसा हम दुनाया के बारे में सोचते है,
फिर क्यों कभी खुद को कभी दुनिया को कोसते है,
अगर मीरा जैसे बनेंगे दीवाने ,
फिर लोग तो मारेंगे हीं ताने,
पर वक्त ने उसी दुनिया को उसके पैरों पर गिरते देखा है,
सभ्यता की नई गलियों में इन्सान को मिटते देखा है ।


Nishikant Tiwari

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